गुरुवार, 19 मई 2011

तीसरा घर

 बचपन में घर में सबसे लाड़ली थी शुचि । उसकी उम्र लगभग छ: बरस रही होगी कि उसकी मां चल बसी थी । बाबू जी ने ही मां की भूमिका निभायी थी उसके लिए । हालांकि उस वक्त बाबू जी की उम्र कोई ज्यादा नहीं थी लेकिन बच्चों के लिए उन्होंने कभी बच्चों की सौतेली मां को नहीं स्वीकारा । बाबू जी के लगता था कि भले ही मौसी क्यों न हो, लेकिन मां जैसी ममता कोई नहीं दे सकता । उन्होंने बच्चों को मां का दुलार भी दिया और पिता के संस्कार भी । तीनों बहन भाइयों में शुचि सबसे छोटी थी । बचपन से ही उसे अतिरिक्त लाड़-प्यार मिला था । उसे मां की कभी कमी महसूस होने नहीं दी गई । उसकी हर इच्छा जुबान पर आते ही पूरी कर दी जाती । इसलिए वह बड़े होते-होते जिद्दी भी हो गई थी । कॉलेज में एडमीशन लेते वक्त भी शुचि ने ‘स्कूटी’ लेने की जिद की तो बाबू जी ने जैसे तैसे उसकी वह इच्छा भी पूरी की ।
        शुचि सुन्दर थी और अपने आप को सौभाग्यशाली भी समझती थी । अंहकार स्वाभाविक था । अच्छे-अच्छे घरों से रिश्ते आने लगे । कई आफिसर लड़के भी शुचि ने ठुकरा दिये । उसके मन में पैसों की धुन थी । वह चाहती थी कि जिससे वह शादी करे उसके पास भरपूर दौलत हो । वह कहती थी कि नौकरीपेशा अधिकारी भी तो वेतन पर मोहताज रहता है । अगर नम्बर दो की कमाई हो तो भी खुले से खर्च नहीं कर सकता । विदेशी मूल के व्यवसायी के साथ रिश्ता तय गया । पहले घर से वह अपने दूसरे घर में आ गई । एशो-आराम की जिंदगी समझने वाली शुचि जल्दी ही यथार्थ से परिचित हो गई । उसके पति विनय के पास दौलत की कमी नहीं थी लेकिन विरासत में मिली दौलत ने उसे निकम्मा बना दिया था । वह मां-बाप की कमाई हुई दौलत को बढ़ाना तो दूर, ठीक तरह से सहेज भी नहीं पाया । ऐश-परस्ती में दौलत लुटाता रहता । फिर भी शुचि को इस बात का सन्तोष था कि उसके पास असीम दौलत अभी भी शेष थी । शुचि का अनुमान था कि अगर सारी उम्र भी विनय कुछ नहीं कमाता तो उसके पास जीवनयापन के लिए काफी दौलत है ।
        उसका अनुमान गलत निकला । पैसा भी शायद चांद की तरह होता है । अगर बढ़ेगा नहीं तो घटना शुरू हो जाएगा और अमावस तक कालिमा में खो जाएगा । शुचि के जीवन में भी एकाएक अमावस की काली छाया पड़ गई । इस वक्त का अहसास उसे तब हुआ जब उसके विशालकाय भवन ‘शुचि निवास’ पर लेनदारों ने ताला जड़ दिया । उसे मालूम ही नहीं हुआ कि मकान पिछले कई महीनों से गिरवी पड़ा हुआ है और व्यवसाय के नाम पर लाखों रूपये सट्टे में गवांता रहा विनय । रही-सही दौलत भी शराब की लत में गंवा दी । दौलत व इज्ज़त की मिली वह विरासत संभाल नहीं पाया । शुचि को अपना व बेटी सान्या की भविष्य असुरक्षित लगने लगा । वह स्वयं काम करके कुछ धन कमाना चाहती थी लेकिन विनय के स्टेटस ने उसे ऐसा नहीं करने दिया । स्वयं विनय भी ऐसा कुछ नहीं कर पाया कि उसकी गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ती ।
        एक दिन उसने शुचि को जैसे बेटी सहित बनवास दे दिया । उसने शुचि के सिरहाने एक पत्र छोड़कर अपने आपको जिम्मदारियों से मुक्त समझ लिया था । ‘‘.........शुचि मैं तुम्हारी और सान्या की बेबसी नहीं देख सकता । ..... मैं जा रहा हूं ..... मुझे माफ करना ।’’ शुचि उसे कभी माफ नहीं कर पायी । दोनों साथ होते तो एक दूसरे का सहारा हो सकते थे । शुचि बिखर गई । उस पत्र की लकीरें उसे किसी मंज़िल का रास्ता नहीं दिखा सकी । वह स्वयं को दिशाहीन महसूस करने लगी थी । आत्महत्या का विचार उसे बौना लगा । बेटी को देखकर उसे जीवन से संघर्ष करने का बल मिला । उसने अपने पहले घर का दरवाजा खटखटाया । वह नन्हीं सान्या को लेकर मायके आ गई । बाबूजी ने उसका ह्दय से स्वागत किया । भैया व भाभी को भी उसका भविष्य सवांरने की चिन्ता रही । बाबूजी अब तक रिटायर हो चुके थे । पुराना मकान बेचकर भैया ने नया मकान बनवा लिया था । बाबूजी को पेंशन का सहारा था । घर के फैसले अब भैया करने लगे थे । शुचि का फैसला भी भैया के ही हाथों में था ।
        भैया ने उसे ‘ब्यूटी पार्लर’ खोलकर दिया था । उसे अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत दी थी । शुचि के हाथ में हुनर था, काम चल निकला । शुचि व उसकी बेटी सान्या के लिए एक आर्थिक आधार बन गया था वह ब्यूटी पार्लर । ब्यूटी पार्लर के ऊपर ही ‘वन रूम सैट’ बन गया था । शुचि ने भाभी के बदलते तेवर देखे तो वहीं शिफ्ट कर लिया । बाबूजी भी कभी-कभी उसके पास आकर रहते थे । बाबूजी बेबस थे । सारी उम्र की कमाई बेटे के हाथों में सौंपते वक्त उन्होंने अपने भविष्य के बारे में भी नहीं सोचा था । शुचि की हालत देखकर वह चाहकर भी उसके लिए कोई ठोस आर्थिक सम्बल नहीं जुटा पाये थे ।
        शुचि का वर्तमान तो संभल गया था लेकिन भविष्य असुरक्षित था । भैया के ‘ब्यूटी पार्लर’ से जाने कब बेघर हो जाए, यह डर भी उसके भीतर घर कर गया था । भैया-भाभी जैसे अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त थे । उन्हें शुचि के भविष्य के बारे में कोई विशेष चिन्ता नहीं थी लेकिन बाबू जी को यह दुख सालता रहा ।
        चार साल हो गये थे, विनय का कहीं कोई पता नहीं चला था । शुचि सधवा बनकर विधवा सा जीवन व्यतीत कर रही थी । पता नहीं यह शुचि के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए था या वे अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते थे कि शुचि के लिए पुनर्विवाह का प्रस्ताव रखा गया । शुचि के लिए यह अप्रत्याशित था । विनय के जाने के बाद एक बार भी उसके मन में यह ख्याल नहीं आया था । यूं तो विनय के प्रति भी उसके मन में कोई आस्था बाकि नहीं बची थी । हालात ने उसे इस कदर कठोर बना दिया था कि विनय के लौटने पर भी वह शायद उसे स्वीकार न कर पाती ।
        जिन स्थितियों में विनय गौतम बनकर घर से निकला था, वह उसकी कायरता थी, उसकी विवशता नहीं । इतने सालों में एक बार तो विनय ने पीछे मुड़कर देख लिया होता कि शुचि जिंदा भी है या नहीं । विनय स्वयं भी जिंदा है या नहीं, यह डर भी शुचि के भीतर तैरता रहा । वह अपने वैधव्य जीवन को सधवा का लबादा ओढ़े कब तक जी सकती थी । ज़माने की बुरी निगाहें उसकी बेटी पर न पड़ें, उसे यह चिन्ता भी थी । अपना पति ही उसे छोड़कर चला जाए औरत का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है । वह सम्मानित जीवन जीना चाहती थी ।
        बृजेश किसी कम्पनी में मैनेजर थे । अपना घर था । बीवी का ऐक्सीडेंट की वजह से देहान्त हो चुका था । एक छः बरस का बेटा भी था । सान्या को साथ ले जाने की बात स्वीकार ली गई तो शुचि ने भी सहज स्वीकृति दे दी ।
        शादी की सभी रस्में अदा करके शुचि अपने तीसरे घर में कदम रखने लगी तो उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े । वह पलभर को रूकी और फिर अश्रुकणों पर पैर रखकर दहलीज़ लांघ गई ।

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