गुरुवार, 19 मई 2011

तीसरा घर

 बचपन में घर में सबसे लाड़ली थी शुचि । उसकी उम्र लगभग छ: बरस रही होगी कि उसकी मां चल बसी थी । बाबू जी ने ही मां की भूमिका निभायी थी उसके लिए । हालांकि उस वक्त बाबू जी की उम्र कोई ज्यादा नहीं थी लेकिन बच्चों के लिए उन्होंने कभी बच्चों की सौतेली मां को नहीं स्वीकारा । बाबू जी के लगता था कि भले ही मौसी क्यों न हो, लेकिन मां जैसी ममता कोई नहीं दे सकता । उन्होंने बच्चों को मां का दुलार भी दिया और पिता के संस्कार भी । तीनों बहन भाइयों में शुचि सबसे छोटी थी । बचपन से ही उसे अतिरिक्त लाड़-प्यार मिला था । उसे मां की कभी कमी महसूस होने नहीं दी गई । उसकी हर इच्छा जुबान पर आते ही पूरी कर दी जाती । इसलिए वह बड़े होते-होते जिद्दी भी हो गई थी । कॉलेज में एडमीशन लेते वक्त भी शुचि ने ‘स्कूटी’ लेने की जिद की तो बाबू जी ने जैसे तैसे उसकी वह इच्छा भी पूरी की ।
        शुचि सुन्दर थी और अपने आप को सौभाग्यशाली भी समझती थी । अंहकार स्वाभाविक था । अच्छे-अच्छे घरों से रिश्ते आने लगे । कई आफिसर लड़के भी शुचि ने ठुकरा दिये । उसके मन में पैसों की धुन थी । वह चाहती थी कि जिससे वह शादी करे उसके पास भरपूर दौलत हो । वह कहती थी कि नौकरीपेशा अधिकारी भी तो वेतन पर मोहताज रहता है । अगर नम्बर दो की कमाई हो तो भी खुले से खर्च नहीं कर सकता । विदेशी मूल के व्यवसायी के साथ रिश्ता तय गया । पहले घर से वह अपने दूसरे घर में आ गई । एशो-आराम की जिंदगी समझने वाली शुचि जल्दी ही यथार्थ से परिचित हो गई । उसके पति विनय के पास दौलत की कमी नहीं थी लेकिन विरासत में मिली दौलत ने उसे निकम्मा बना दिया था । वह मां-बाप की कमाई हुई दौलत को बढ़ाना तो दूर, ठीक तरह से सहेज भी नहीं पाया । ऐश-परस्ती में दौलत लुटाता रहता । फिर भी शुचि को इस बात का सन्तोष था कि उसके पास असीम दौलत अभी भी शेष थी । शुचि का अनुमान था कि अगर सारी उम्र भी विनय कुछ नहीं कमाता तो उसके पास जीवनयापन के लिए काफी दौलत है ।
        उसका अनुमान गलत निकला । पैसा भी शायद चांद की तरह होता है । अगर बढ़ेगा नहीं तो घटना शुरू हो जाएगा और अमावस तक कालिमा में खो जाएगा । शुचि के जीवन में भी एकाएक अमावस की काली छाया पड़ गई । इस वक्त का अहसास उसे तब हुआ जब उसके विशालकाय भवन ‘शुचि निवास’ पर लेनदारों ने ताला जड़ दिया । उसे मालूम ही नहीं हुआ कि मकान पिछले कई महीनों से गिरवी पड़ा हुआ है और व्यवसाय के नाम पर लाखों रूपये सट्टे में गवांता रहा विनय । रही-सही दौलत भी शराब की लत में गंवा दी । दौलत व इज्ज़त की मिली वह विरासत संभाल नहीं पाया । शुचि को अपना व बेटी सान्या की भविष्य असुरक्षित लगने लगा । वह स्वयं काम करके कुछ धन कमाना चाहती थी लेकिन विनय के स्टेटस ने उसे ऐसा नहीं करने दिया । स्वयं विनय भी ऐसा कुछ नहीं कर पाया कि उसकी गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ती ।
        एक दिन उसने शुचि को जैसे बेटी सहित बनवास दे दिया । उसने शुचि के सिरहाने एक पत्र छोड़कर अपने आपको जिम्मदारियों से मुक्त समझ लिया था । ‘‘.........शुचि मैं तुम्हारी और सान्या की बेबसी नहीं देख सकता । ..... मैं जा रहा हूं ..... मुझे माफ करना ।’’ शुचि उसे कभी माफ नहीं कर पायी । दोनों साथ होते तो एक दूसरे का सहारा हो सकते थे । शुचि बिखर गई । उस पत्र की लकीरें उसे किसी मंज़िल का रास्ता नहीं दिखा सकी । वह स्वयं को दिशाहीन महसूस करने लगी थी । आत्महत्या का विचार उसे बौना लगा । बेटी को देखकर उसे जीवन से संघर्ष करने का बल मिला । उसने अपने पहले घर का दरवाजा खटखटाया । वह नन्हीं सान्या को लेकर मायके आ गई । बाबूजी ने उसका ह्दय से स्वागत किया । भैया व भाभी को भी उसका भविष्य सवांरने की चिन्ता रही । बाबूजी अब तक रिटायर हो चुके थे । पुराना मकान बेचकर भैया ने नया मकान बनवा लिया था । बाबूजी को पेंशन का सहारा था । घर के फैसले अब भैया करने लगे थे । शुचि का फैसला भी भैया के ही हाथों में था ।
        भैया ने उसे ‘ब्यूटी पार्लर’ खोलकर दिया था । उसे अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत दी थी । शुचि के हाथ में हुनर था, काम चल निकला । शुचि व उसकी बेटी सान्या के लिए एक आर्थिक आधार बन गया था वह ब्यूटी पार्लर । ब्यूटी पार्लर के ऊपर ही ‘वन रूम सैट’ बन गया था । शुचि ने भाभी के बदलते तेवर देखे तो वहीं शिफ्ट कर लिया । बाबूजी भी कभी-कभी उसके पास आकर रहते थे । बाबूजी बेबस थे । सारी उम्र की कमाई बेटे के हाथों में सौंपते वक्त उन्होंने अपने भविष्य के बारे में भी नहीं सोचा था । शुचि की हालत देखकर वह चाहकर भी उसके लिए कोई ठोस आर्थिक सम्बल नहीं जुटा पाये थे ।
        शुचि का वर्तमान तो संभल गया था लेकिन भविष्य असुरक्षित था । भैया के ‘ब्यूटी पार्लर’ से जाने कब बेघर हो जाए, यह डर भी उसके भीतर घर कर गया था । भैया-भाभी जैसे अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त थे । उन्हें शुचि के भविष्य के बारे में कोई विशेष चिन्ता नहीं थी लेकिन बाबू जी को यह दुख सालता रहा ।
        चार साल हो गये थे, विनय का कहीं कोई पता नहीं चला था । शुचि सधवा बनकर विधवा सा जीवन व्यतीत कर रही थी । पता नहीं यह शुचि के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए था या वे अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते थे कि शुचि के लिए पुनर्विवाह का प्रस्ताव रखा गया । शुचि के लिए यह अप्रत्याशित था । विनय के जाने के बाद एक बार भी उसके मन में यह ख्याल नहीं आया था । यूं तो विनय के प्रति भी उसके मन में कोई आस्था बाकि नहीं बची थी । हालात ने उसे इस कदर कठोर बना दिया था कि विनय के लौटने पर भी वह शायद उसे स्वीकार न कर पाती ।
        जिन स्थितियों में विनय गौतम बनकर घर से निकला था, वह उसकी कायरता थी, उसकी विवशता नहीं । इतने सालों में एक बार तो विनय ने पीछे मुड़कर देख लिया होता कि शुचि जिंदा भी है या नहीं । विनय स्वयं भी जिंदा है या नहीं, यह डर भी शुचि के भीतर तैरता रहा । वह अपने वैधव्य जीवन को सधवा का लबादा ओढ़े कब तक जी सकती थी । ज़माने की बुरी निगाहें उसकी बेटी पर न पड़ें, उसे यह चिन्ता भी थी । अपना पति ही उसे छोड़कर चला जाए औरत का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है । वह सम्मानित जीवन जीना चाहती थी ।
        बृजेश किसी कम्पनी में मैनेजर थे । अपना घर था । बीवी का ऐक्सीडेंट की वजह से देहान्त हो चुका था । एक छः बरस का बेटा भी था । सान्या को साथ ले जाने की बात स्वीकार ली गई तो शुचि ने भी सहज स्वीकृति दे दी ।
        शादी की सभी रस्में अदा करके शुचि अपने तीसरे घर में कदम रखने लगी तो उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े । वह पलभर को रूकी और फिर अश्रुकणों पर पैर रखकर दहलीज़ लांघ गई ।

मंगलवार, 17 मई 2011

लघुकथाएं

ईनाम का हकदार                        
                                                            
-शर्मा जी नमस्ते.........................उँचे स्वर से वर्मा ने कहा विद्यालय में घुसते ही।

-नमस्ते वर्मा जी

-और सुनाईए, कैंसा रहा आप का परीक्षा-परिणाम।

वर्मा के स्वर में व्यंग्य का पुट था।

-कुछ खास नही बस वो

-अरे! आप तो सारा साल मेहनत करवाते हैं, एकस्ट्रा कलास भी लेते है फिर भी.............वर्मा ना जाने क्या क्या कहता रहा। शर्मा जी खड़े ना रह सके। वे जानते थे वर्मा सारा साल मौज मारता था। अधिकारियों से सांठ-गांठ रखता था। हर वर्ष उन्हे खिला-पिला कर, नकल करवा कर अपना परिणाम शत-प्रतिशत ले आता था। वे कुछ ना बोले।

छुट्टी होने पर सब बाहर निकले। गांव की चौपाल से गुजरते हुए कुछ लोगों का वार्तालाप उन्हें सुनाई पड़ा।

-दादा स्कूल में अब पहले जैंसी बात ना रही..............इस बार सुना है आप ने शर्मा जी का परिणाम..............मगर वर्मा जी का परिणाम बहुत अच्छा है एक युवक बोला।

-अरे रहने दे..............मैं जानता हूँ एक नम्बर का घटिया काईयां और कमीना है यह वर्मा...........

-बेटा इन्सान का असली परिणाम उस के कामों में झलकता है................शर्मा जी जैसा अध्यापक चिराग ले कर भी ढूँढने से न मिलेगा..........मेहनती ईमानदार, सहज और विषय का माहिर है वह...........बुजुर्ग बोला ये तो ठीक कहते है दादा, हम सब भी उन्हीं से पढ़े है............मास्टर है तो असली वहीं।

शर्मा जी ने वर्मा जी की ओर देखा। उन की नज़रे झुक गई थी। उन्हें वहां से गुजरना भी मुशकिल हो रहा था। मगर शर्मा जी का चेहरा चमक रहा था।

सबक

दफ्तर में मि0 शर्मा ने नये अधिकारी के रूप में ज्वाइन किया था। अपनी ही तरह के इंसान थे। मि0 शर्मा में काम करने का जोश तो था ही करने का ढंग भी अलग था। उस दिन पार्टी में दफ्तर के लोगों ने नैयकिन हाथ पोंछ कर यहाँ वहां डाल दिए तो मि0शर्मा को बहुत अखरा मगर किसी चपड़ासी को कहने की जगह उन्होने सब के सामने स्वंय ही नैपकिन उठा कर डस्टबीन में डाले तो सभी को तो नहीं तीन-चार लोगों ने शर्मिन्दगी अनुभव की और भविष्य में इस आदत को छोड़ने की कसम खा ली।

आज भी मि0 शर्मा जब पहुंचे तो कोई सीट पर नहीं था उन्हें दुख हुआ।

एक रांऊड लिया तो देखा कि सभी कैंटीन में चाय की चुस्किया ले रहे है। वे आ कर अपने केबिन में बैठ गये।

दस मिनट बाद ही वर्मा जी आ पहुँचे।

-सर, देखा आप ने दफ्तर का हाल..............

-हाँ, देख रहा हूँ।

-कोई भी अपनी सीट पर नहीं है, आप उन्हें कहते क्यों नहीं?

-आप भी सीट पर नहीं हैं। मैं आप से कह रहा हूँ।

-जी-जी वो..........क्या है कि..................

-देखिए मि0 वर्मा आप खुद को सुधार लीजीए, सभी अपने आप सुधर जाएंगे, क्यों मैं ठीक कह रहा हूँ ना?

-जी सर, आप ठीक कह रहें हैं-मि0 वर्मा ने सिर झुका कर उठते हुए कहा।



मौत से पहले की मौत

मित्र के कमरे पर बैठा था। बारिश हो कर हटी थी। मौसम में हल्की-हल्की सी ठंडक थी।

मित्र ने मुझे देखा शरारत से।

बोला-क्यो...............क्या इरादा है?

-यार, एक-एक जाम हो जाए

-हां-हां, और सुनों ’मैना भी आ रही है।

वाह.........क्या बात है तुम्हारी कभी कोयल कभी चिड़िया, कभी गौरेया कभी बुलबुल भाई मान गये।

-देखो प्यारे अपना तो उसूल है कि जीवन मे मौज लो, हर रोज लो और ना मिले तो खोज लो क्यों....अभी देखना थोड़ी देर में मैना आ रही है।

-वाह.............

मैंने देखा वाकई आधे घंटे बाद एक खूबसूरत बीस-बाईस साल की लड़की उस कमरे में थी। दोस्त ने मुझे बांई आंख दबाते हुए ईशारा किया और निकल गया।

लड़की जैंसे सब कुछ समझ गई थी।

-क्या नाम है तुम्हारा

-मुस्कान बेचने वाली-उस ने नज़रें नीची करते हुए कहा। शायद वह मुझ से नज़रे मिला न पा रही थी।

-क्यों करती हो यह काम.......मैं पूछ ही गया

-ना करू तो मां मर जाएगी, बाप मर चुका भाई है नही दो बहने थी ब्याह दी मैंने ना करू तो क्या करु -क्या कहते हो? लड़की एक ही झटके में खुद को खोल गई।

कपड़ों की तरफ बढ़ते उस के हाथों को रोक कर मैंने कहा।

-सुनों तुम्हारा मरना तो समझ में आ गया मगर मैं मरना नहीं चाहता, ये तो एक हजार रुपये और शरीर तो मिट्टी है हो सके तो जमीर को मरने से बचा लेना।

वह आंसू पोंछती बाहर निकल गई।



अपने अपने अहसास


पड़ोस में सत्संग था। वे लोग घर आमंत्रित करने आए थे। सपरिवार आने की कह कर उन को विदा किया। हम सत्संग में पहुँचे।

बेटा स्वभाव से जितना शरारती है उसकी मां उतनी ही ममतामयी है। कई बार इसी को ले कर हमारी तीखी झड़प हो चुकी है।सत्संग में भी बह टिक कर नहीं बैठा।

सत्संग तीन घंटे चला। शुरू में तो खूब जमा मगर बाद में नीरस होता गया और आधे समय बाद तो मैंने देखा काफी लोग उंघने लगे और कुछ घड़ियां देखने लगे। कुछेक तो बातें भी करने लगे थे।

कथा वाचक भी समझ गया था उस ने तुरन्त समापन कर दिया।

अब सभी की आंखे खुल गई बुछेक को लंगर में पहले बैठने की चिंता था। वे आरती से पहले ही उठ गए। कुछेक को जूतों की चिंता थी वे मोर्बाइल को सुनने का बहाना कर उठ गये।

कथा वाचक के शिष्य को आरती के थाल में डाले जा रहे चढ़ावे की चिन्ता थी। टैन्ट वालों ने समेटने की शुरूआत कर दी थी।

गोया कि सभी के अपने-अपने एहसास थे। मैं सोच रहा था कि बेचारे भगवान क्या सोच रहे होगें।

खुशी के मायने

गाँव में अध्यापिका कक्षा में पढ़ा रही थी बोलो बच्चो-अ से अनार ई से इमली-अच्छा बच्चो.........इमली तो आप ने देखी होगी मगर अनार शायद न देखा हो-मैं तुम्हें अनार दिखाती हूँ कह कर अध्यापिका ने पर्स से अनार निकाल लिया।

छोटे-छोटे बच्चों को जैसे अजूबा मिल गया। वे आश्चर्य से अनार को हाथ में ले-ले कर देखने लगे।

’इस से क्या हम खेल सकते है एक बच्चे ने पूछा।

नहीं बेटे-इसे खाते है इस के अन्दर लाल-लाल दाने होते हैं। अध्यापिका ने कह कर अनार काट दिया।

सभी बच्चों में उस के दाने बांट दिए। बच्चों ने खाए।

आप कितनी अच्छी हैं टीचर जी...............हम ने पहले कभी अनार देखा भी नहीं था।

-ऐसा क्यों बेटा................

-क्या बताएं टीचर जी............हमें तो रोटी ही मुशिकल से मिलती है............और अनार तो..........कहते हुए बच्चा उदास हो गया।

अध्यापिका की आंखे भर आई

उसे बच्चों के खिले चेहरों में खुशी के मायने नज़र आ रहे थे, वह चौदह साल से अपनी सूनी गोद होने का अहसास भूल गई थी।


नये पेड़

आज विद्यालय मे प्रधानाचार्य सेवा-निवृत हो रहे थे। चारों तरफ चहल-पहल सी थी। उन के सम्मान में विदाई-पार्टी दी जा रही थी। सारा प्रबंध युवा अध्यापक ब्रजेश व नालिनी ने किया था। इन दोनों अध्यापकों में काम के प्रति समर्पित भाव तो था ही साथ ही हर कार्य को एक अनूठे ढंग से पूर्ण करने की कला भी थी जिस से वे कभी-कभी अपने ही लोगों में ईर्ष्या का कारण भी बनते थे।

-चलिए सर सभी आप का इंतजार कर रहे है। ब्रजेश ने प्रधानाचार्य से कहा।

-हां सर, आप यहां इस पेड के नीचे क्या कर रहे हैं जबकि पार्टी तो हाल में हैं। नलिनी ने कहा।

-हां हां चालिए.............प्रधानाचार्य बोले फिर मुड़कर चलते-चलते अचानक रुक गये।

-ब्रजेश जी आप इस पेड़ को देख रहे हैं?

-जी सर

-यह पेड़ सैंकड़ो साल पुराना है लगाने वाला तो नहीं रहा मगर इस की छाया तले सैंकड़ो, हज़ारों बच्चे शिक्षा प्राप्त कर जगत में प्रकाश फैला रहे हैं। चालीस वर्ष से तो मैं भी इस पेड़ से जुड़ा हूँ, कहते हुए प्रधानाचार्य का स्वर भर्रा गया।

-यह तो होता ही है सर, लोग आते हैं, चले जाते है, सस्थाएं तो वहीं रहती हैं नलिनी बोली।

-आप भी कोई नया पेड़ क्यों नही लगाते सर अचानक ब्रजेश बोला।

-प्रधानाचार्य ने उन दोनों को गौर से देखा ओर फिर पेड़ को देखा और बोले

-आप लोग हमारे नये पेड़ ही तो है आप की छाया में ये छोटे-छोटे पौधे पल्ल्वित पुष्पित होकर एक दिन बड़े-बड़े वृक्ष बनेंगे और अपनी खूश्बु से सब को सराबोर करेंगें।

क्यों, है ना?

जी, कह कर ब्रजेश और नंदिनी के चेहरे खिल गए।


अपना घर


उसने घड़ी पर नज़र डाली। रात के दस बज चुके थे। वह स्टैंड पर खडा किसी वाहन का इंतजार कर रहा था। आखरी बस छूट चुकी थी। उसे कोई ट्रक आदि ही मिल सकता था। घर उस ने सूचना दे दी थी कि वह लेट हो सकता है।

तभी दूर से रोशनी दिखाई दी। वाकई एक ट्रक था उस ने हाथ दिया ट्रक रूक गया।

ट्रक में बैठ कर उस ने राहत की सांस ली। ट्रक में नज़र दौड़ाई। पिछली सीट पर एक मोटा सा आदमी खर्रांटे मार रहा था। उपर की सीट पर टो खाली टूटी पीपीयां जंग लगा मैला सा गिलास पड़ा था। एक कोने में शेरों वाली माता की फोटो मैल से अटी पड़ी थी व उस पर टंगी माला के फूलों का रंग भी बदल गया था। उस की नज़र ड्राईवर पर पड़ी।

मैला चेहरा महीने से जैसे नहाया न हो, होंठों पर पपड़ी सी जमी, बिना बाजू वाली बनियान जैसे बीमार हो मरियल सा शरीर, अलसाई सी आंखे। उम्र यही कोई बीस बाईस मगर देखने में तीस पैंतीस।

-कहां आजोगे भाई

-अभी बाबूजी 400 कि0मी0 का सफर है, दिन चढ़े पहुँचेगे।

-बेटे अभी तो तुम्हारी पढ़ने खेलने खाने की उम्र थी, घर में क्या मां बाप ने नहीं सोचा इस बारे में? मैं पूछ ही बैठा।

-उस ने मुझे कातर निगाहों से देखा और बोला

-बाबू जी मां बाप तो पांच साल का था गुजर गये। अब तो मैं ही मां बाप हूँ छोटे भाई बहनों को जहाँ भी होता हूँ मनीआर्डर भेज देता हूँ।

-घर कहां है तुम्हारा

-’’ये ट्रक ही तो घर है मेरा’’ उस के मुँह से बेसाख्ता निकला

मैनें नज़रें झुका ली।


पहाड़ का बेटा

इस बार गर्मियों की छुटियों में पहाडों पर जाने का मन बना। बच्चों को ले कर बारह-चौदह घटों की कठिन यात्रा कर जब पहाडों की गोद में कदम रखा तो खुश्गवार ठण्डी हवा के मस्त झोंकों ने हमारा स्वागत किया।

कुछ लोगों ने होटल के लिये घेर लिया तो कुछ अपनी खाने-पीने की दुकानों पर चलने का आग्रह करने लगे। सभी को किसी न किसी तरह टाला और एक तरफ बनी पुलिया पर बैठ सुस्ताने सा गला।

बच्चे भी चहक रहे थें। उन की माँ उन को ठण्ड लगने के भय से चिंतित थी। और चाहती थी कि जल्द से जल्द कमरे तक पहुंचा जाए। तभी एक बारह-तेरह साल का गठीले बदन का लड़का पास आ कर बोला।

-बाबू जी मैं आप का सामान उठा लूँ क्या?

जो चाहे दे दीजीएगा?

मुझे उस की शालीनता, व बात करने के सलीके ने प्रभावित किया।

-कितने पैसे लोगे? उपर हाली डे होम तक जाना है हमें।

रेट तो बीस का है बाबू जी, मगर आप कुछ भी दे दीजिएगा, बाबू जी, सुबह से कोई काम नहीं मिला अतः पेट में कुछ नहीं गया।

तभी पत्नी ने बैग से बिस्कुटों का एक पैकेट निकाल कर उसे जर्बदस्ती धमाते हुए कहा।

-इसे खा लो बेटे पहले................

बच्चा पहले तो झिझका, फिर ले कर खाने लगा मैंने देखा उस ने चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया।

-क्या नाम है तुम्हारा.............

-जी पहाड़ का बेटा..............मां ने रखा यह नाम, पिता जी नहीं हैं, बहन बड़ी है, खेत में मजूरी करती है मां और बहन, छोटा सा गांव है हमारा।

बच्चा एक बार मंे ही मानो पूरा घर खोल गया।

-हमारे साथ चलोगे बेटे...............बहुत बड़ा घर है, खिलौने हैं।

खाने पीने की मौज है। चााहो तो पढ़ भी लेना।

पत्नी क्या सोच रही थी मैं अनुमान लगा चुका था।

-नहीं आंटी जी मैं यही ठीक हूँ, शहर के लोग ’पहाड के बेटों को यूं ही फांस कर ले जाते हैं नौकर रखते हैं पूरा काम लेते हैं। और फिर...........

-फिर बेटे मैंने पूछा

-और फिर........चोरी का इल्जाम लगा कर भगा देते है, हमारे गांव में ऐसे कई बच्चे है बाबू जी, हमें तो पहाड़ ही रास आता है बाबू जी, काम भी देता है प्यार भी करता है और शहरी लोगों की तरह दगाबाज और झूठा नही होता। क्यों बाबू जी?

कह कर वह जबाब का इंतजार किए बिना एक ओर चला गया

हमारे पास मानों शब्द ही नहीं थे।

ज़मीर

होटल का वह कमरा पूरी तरह बातानुकूलित था जहाँ वे पांचों बैठे हुए थे। सामने टेबल पर विदेशी विहस्की, शाही कबाब, सोडा, बर्फ, नमकीन काजू पडे़ हुए थे। वे प्रान्त के विभिन्न हिस्सों से आये छंटे हुए बदमाश थे। दो पैग वे लगा चुके थे।

एक से एक खुंखार दुर्दिन अपराधी थे वे। किसी के पास विदेशी पिस्तौल थी तो कोई रामपुरी का मास्टर था।

तीसरा पैग पी कर वे कुछ सरूर में आए।

- मैंने उस साले सेठ को दिन दिहाड़े लिटा दिया पहले ने कहा।

अपुन ने उस खद्दरधारी को नरक पहुँचाया........दूसरा बोला।

चौथा पैंग अन्दर गया तो फिर और रंग चढ़ा।

-अब की बार मुझे साले मन्त्री को ठिकाने लगाना है...............तीेसरे ने कहा।

-अरे ये तो अपनी ही बिरादरी के है, मारना है तो चोर की मां को मार........चौथा बिगड़ा अब तक वे दो-दो पैग और पी चुके थे।

-कयों वे तू क्यों नहीं बोलता-लड़खड़ाती आवाज में पहले ने पांचवे से पूछा।

-क्या बोलूं मैं........सालो.......हम भी तो मरेंगे यू ही एक दिन...........पांचवा बोला।

........ठहरों...........तुम क्या सोचते हो, तुम जिन्दा हो..........पहला भारी आवाज़ में बोला और उन की कल्पनाओं में मां, बाप, पत्नी, बच्चे यार, रिश्तेदार सजीव हो उठे।

न जाने क्यों कमरे की ठंडक के बावजूद सब के चेहरों पर पसीना था।

पेट

पर्यावरण को ले कर चिंतित दल के साथ वह भी उस के सदस्य के रूप में खान मजदुरों के साथ बातचीत करने गया था। वहां का माहौल देख वह दुखी हुआ। पहाडों से काम करते मजदूर, पत्थर काटते कमजोर, मरियल हाथ व खांसते हुए एक वृद्ध के पास वह रूक गया। उस ने वृद्ध को ध्यान से देखा। उस की उम्र सत्तर के लगभग रही होगी।

हड़िडयों का ढांचा सा शरीर, आंखों पर मोटे शीशे की ऐनक जिस में एक तरफ धागा था जो कान से लटक रहा था। चेहरे पर झुर्रियां ही झुर्रियां।

पत्थर को काटता वृद्ध बार-बार खांसने लगता था। वृद्ध ने उसे एक नज़र देखा, फिर अपने काम में लग गया। उसे बड़ा तरस आया।

-क्यों बाबा.........क्यों करते हो यह काम..........देखते नहीं कि खांसी है आप को?

-तो क्या हुआ बाबू जी, एक बार फिर खांसकर वृद्ध बोला।

-ईलाज क्यों नहीं करवाते, जानते हैं यह टी.बी. या दमा भी हो सकता है?

-जानता हूँ-आप डाकटर है क्या? उस ने पूछा

-हां, और इसी तरह अगर आप काम करते रहे तो दो,तीन साल में, भगवान ना करे...... वह बोलता-बोलता रूक गया।

-तीन साल तो बहुत होते हैं बाबू जी.........अगर मैं काम ना करू तो मेरा परिवार तीन दिन से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकता..............पेट तो रोटी मांगता है बाबू जी दवाई नही, वह घर एक बार खांस कर फिर काम में जुट गया।

और वह निरुतर हो कर आगे बढ़ गया........पेट, हां वह भी तो पेट के लिये ही यहाँ आए हैं।

                                                                  - डा0 प्रद्युम्न भल्ला कैथल